सुंदरसाथ का प्रश्न: अपने द्वारा किए गए अच्छे कर्म कहां तक जाते हैं कृपया थोड़ा मार्गदर्शन प्रदान करें l श्री चरणों में प्रणाम जी..
सुंदरसाथ का प्रश्न:
अपने द्वारा किए गए अच्छे कर्म कहां तक जाते हैं कृपया थोड़ा मार्गदर्शन प्रदान करें l श्री चरणों में प्रणाम जी..
तारतम ज्ञान के प्रकाश बिना कर्मों की सीमा की बात तो हम सब समझते ही हैं । लेकिन कर्मों के सिद्धांत का जागनी लीला से "तारतम्य" न समझने की वजह से कई सुंदरसाथ का यह उत्तर रहता है कि:
कर्मभूमी के कर्म, कर्मभूमी तक ही सीमित रहते है।"
अपने जीवन अनुभव के आधार पर मेरा चिंतन इस प्रकार है । आशा करता हुँ सुंदरसाथ इसका हार्द ग्रहण करेंगे:
आत्मसम्बन्धी श्री सुंदरसाथजी!
हमारे कर्म जब आत्मस्थित हो कर , आत्म-भाव से होते हैं (करने नहीं पड़ते!), तब कर्म कर्म रहते ही नहीं, प्रेम लीला का स्वरूप धर लेते हैं। संकल्प की पवित्रता की बड़ी महिमा है।
जैसे गोपियों ने व्रजमंडल में किया था । गोपियों के कर्म प्रेम सेवा के स्वरूप थे, तो आज जो कोई व्यक्ति द्वारा, ऊसी भाव से चित्त की एकाग्रता के साथ, अपने प्रेमानंद स्वरूप में ध्यान रख कर , जो कुछ भी सहज से होता है, वह सब धाम धणी के चरणों में पहुँचता ही है ।
इसलिए सुंदरसाथजी को अकर्मण्य हो कर कर्म न करने के धोखे में से मुक्त होने की आवश्यकता है ।
निष्काम कर्म को अक्षरातीत स्तर के प्रेम लीला से जोड़ लेना अनन्य परा प्रेम लक्षणा भक्ति है ।
यदि बीतक के पात्रों को देखते है, तो सब सरल हो जाता है । लेकिन जब हम जीव और आत्म को हर बात में बुद्धि के स्तर पर तर्क वितर्क द्वारा अलग करते रहने की मानसिकता के शिकार बन जाते है, तब हम खुद को प्रेम और आनंद की अनुभूति से अलग कर लेते है ।
क्या किसी गोपीने या श्री जी के समकालीन समर्पित सुंदरसाथ ने इस प्रकार के विश्लेषण द्वारा प्रेम सेवा की अभिव्यक्ति में अवरोध खड़ा किया था ?
सामने आए अवसर की पहचान और उसके लिए कुछ करने के बीच जितना गैप बढ़ाएँगे, उतना आनंद से दूर होना निश्चित है ।
ततख़िन कीजे तेणे ताए ।
प्रेम की भूमिका में आप कुछ किए बिना रह ही नहीं सकते । प्रियपात्र को रिझाने के लिए मजबूर करता है प्रेम । पिया मोहें सवांत न आवहि! उसे चैन ही नहीं पडता।
हमें क्या पता किसी का कर्म कितना शुद्ध है? उसे कर्म कहें या प्रेम ? जागत है एक खावंद। सिर्फ़ उन्हें पता है।
अतः सुंदरसाथ की चतुराई की साक्षी प्रेम सेवा द्वारा जागनी लीला में सहजता से सम्मिलित होने में नज़र आती है । जिससे धणी रीझते हैं।
प्रेम भूमि वाले कर्मभूमि में अपने प्रेम का परिचय उपरोक्त स्तर के अनंत विध कर्म द्वारा ही देंगे।
सदाआनंद मंगल में रहिए
सप्रेम प्रणाम जी
अपने द्वारा किए गए अच्छे कर्म कहां तक जाते हैं कृपया थोड़ा मार्गदर्शन प्रदान करें l श्री चरणों में प्रणाम जी..
तारतम ज्ञान के प्रकाश बिना कर्मों की सीमा की बात तो हम सब समझते ही हैं । लेकिन कर्मों के सिद्धांत का जागनी लीला से "तारतम्य" न समझने की वजह से कई सुंदरसाथ का यह उत्तर रहता है कि:
कर्मभूमी के कर्म, कर्मभूमी तक ही सीमित रहते है।"
अपने जीवन अनुभव के आधार पर मेरा चिंतन इस प्रकार है । आशा करता हुँ सुंदरसाथ इसका हार्द ग्रहण करेंगे:
आत्मसम्बन्धी श्री सुंदरसाथजी!
हमारे कर्म जब आत्मस्थित हो कर , आत्म-भाव से होते हैं (करने नहीं पड़ते!), तब कर्म कर्म रहते ही नहीं, प्रेम लीला का स्वरूप धर लेते हैं। संकल्प की पवित्रता की बड़ी महिमा है।
जैसे गोपियों ने व्रजमंडल में किया था । गोपियों के कर्म प्रेम सेवा के स्वरूप थे, तो आज जो कोई व्यक्ति द्वारा, ऊसी भाव से चित्त की एकाग्रता के साथ, अपने प्रेमानंद स्वरूप में ध्यान रख कर , जो कुछ भी सहज से होता है, वह सब धाम धणी के चरणों में पहुँचता ही है ।
इसलिए सुंदरसाथजी को अकर्मण्य हो कर कर्म न करने के धोखे में से मुक्त होने की आवश्यकता है ।
निष्काम कर्म को अक्षरातीत स्तर के प्रेम लीला से जोड़ लेना अनन्य परा प्रेम लक्षणा भक्ति है ।
यदि बीतक के पात्रों को देखते है, तो सब सरल हो जाता है । लेकिन जब हम जीव और आत्म को हर बात में बुद्धि के स्तर पर तर्क वितर्क द्वारा अलग करते रहने की मानसिकता के शिकार बन जाते है, तब हम खुद को प्रेम और आनंद की अनुभूति से अलग कर लेते है ।
क्या किसी गोपीने या श्री जी के समकालीन समर्पित सुंदरसाथ ने इस प्रकार के विश्लेषण द्वारा प्रेम सेवा की अभिव्यक्ति में अवरोध खड़ा किया था ?
सामने आए अवसर की पहचान और उसके लिए कुछ करने के बीच जितना गैप बढ़ाएँगे, उतना आनंद से दूर होना निश्चित है ।
ततख़िन कीजे तेणे ताए ।
प्रेम की भूमिका में आप कुछ किए बिना रह ही नहीं सकते । प्रियपात्र को रिझाने के लिए मजबूर करता है प्रेम । पिया मोहें सवांत न आवहि! उसे चैन ही नहीं पडता।
हमें क्या पता किसी का कर्म कितना शुद्ध है? उसे कर्म कहें या प्रेम ? जागत है एक खावंद। सिर्फ़ उन्हें पता है।
अतः सुंदरसाथ की चतुराई की साक्षी प्रेम सेवा द्वारा जागनी लीला में सहजता से सम्मिलित होने में नज़र आती है । जिससे धणी रीझते हैं।
प्रेम भूमि वाले कर्मभूमि में अपने प्रेम का परिचय उपरोक्त स्तर के अनंत विध कर्म द्वारा ही देंगे।
सदाआनंद मंगल में रहिए
सप्रेम प्रणाम जी
इसमें कौन से कर्म का व्याख्यान किया गया है, मायावी कर्म या सेवा पूजा कर्म , इन दोनों कर्मों से आत्मभावी कर्म स्वतः कैसे होने लगेंगे ?
ReplyDeleteसांसारिक कर्मों को यदि तारतम्य ज्ञान से एड करते हैं तो परिणाम स्वरूप माया की अधिकता रहेगी तब अनन्य प्रेम कैसे सम्भव हो सकेगा ।
Unknown kaun hota hai?
Deleteअपने द्वारा किए गए कर्म कहाँ तक जाते हैं? इस सम्बंधी मेरे विचार पोस्ट करने के बाद mr. unknown ne yah prashn rakha hai:
Delete“इसमें कौन से कर्म का व्याख्यान किया गया है, मायावी कर्म या सेवा पूजा कर्म , इन दोनों कर्मों से आत्मभावी कर्म स्वतः कैसे होने लगेंगे ? सांसारिक कर्मों को यदि तारतम्य ज्ञान से एड करते हैं तो परिणाम स्वरूप माया की अधिकता रहेगी तब अनन्य प्रेम कैसे सम्भव हो सकेगा ।”
उत्तर:
अनन्य प्रेम की यात्रा पूर्ण , whole की और होती है । अद्वैत भाव द्वारा ही अनन्यता की प्रैक्टिस शुद्ध रूप धारण कर पाती है। अनन्य प्रेम पल पल evolve भी होता है, नयी ऊँचाई को भी छूता रहता है और अपने भीतर अपने नीचे के सभी स्तरों को समेट भी लेता है।
अनन्य प्रेम की सच्ची अभिव्यक्ति आत्म भावि कर्म से ही पुरी होती है । आत्म भाव की स्थिरता की स्थिति में होने वाला कोई भी कर्म - सांसारिक हो या आध्यात्मिक, प्रेम ही का रूप धर लेता है । मायावी कर्म या सेवा पूजा कर्म इन में ऐसा कोई भी अंतर नहीं रह जाता ।
गोपी ब्रिज मंडल में जो संसार का काम करती थी, वह सब श्री कृष्ण भाव में केंद्रित रह कर ही करती थी । तो उसके सभी जीवन कर्म - लौकिक और अलौकिक दोनों ही अलौकिक स्तर से किए जाते थे।
स्वअनुभव द्वारा यह समझ लेने की आवश्यकता है कि आत्म भाव में होने वाला हर लौकिक कर्म अलौकिक ही हो जाता है और सेवापूजा आदि भी यदि आत्मभाव से सम्पन्न हुआ है, तो वह भी प्रेम है, कर्म मात्र नहीं, जो अलौकिक होता है । हर माया कर्म आत्म भाव से सम्पन्न हों यह हमारी जागनी है ।
कर्म - कर्म का अंतर मिटाना जागनी है । प्रेम भेद बनाए रखता नहीं, प्रेम छटनी करता नहीं , प्रेम सब को - हर स्तर को अपने भीतर समा लेता है । पूर्णता की अनुभूति की और ले जाता है ।
तारतम ज्ञान हर स्तर की बात को अलग अलग समझा कर फिर इन्हें एक एक मोती की भाँति तारतम्य धागे से माला के रूप में बना कर प्रस्तुत करता है । तारतम ईस integral wisdom - not disintegrated wisdom.
जीव -आत्म, कर्म-प्रेम, माया-ब्रह्म द्वैत-अद्वैत, आदि हर प्रकार के भेद अनुभूति में स्पष्ट हो जाने के बाद जाग्रति की अवस्था में सभी एक रूप घुलमिल जाते हैं। आध्यात्मिक ऊँचाई पर फिर अलगाव सब मिट जाता है । प्रेम के पास कर्म की सीमा के बारे में सोचने का समय हाई नहीं होता । उसका तो हर कर्म जागनी लीला रूप धारण कर लेता है- प्रेम बंधन में कर्म बंधन नहीं लगता।
यह ज्ञान चर्चा का विषय नहीं, अनुभूति द्वारा ज्ञान भीतर में होने का विषय है ।
सदा आनंद मंगल में रहिए।
सप्रेम प्रणाम जी
सदाआनंद मंगल में रहिए
ReplyDeleteसप्रेम प्रणाम साथ जी