माया - ब्रह्म की पहेली - PART1
माया - ब्रह्म की पहेली -1
हवे माया नो जे पामसे पार, तारतम करसे तेह विचार |
ब्रह्माण्ड माहें तारतम सार, एणे टाल्यो सहुनो अन्धकार ||
माया-ब्रह्म एक पहेली बन गयी है। पहेली बनने का कारण यही रहा कि परब्रह्म का स्वरूप भलीभांति उजागर नहीं हो पाया। ब्रह्म के साथ 'पर' शब्द क्यों लगाया गया, इसका ख्याल सबको नहीं आ पाया। ब्रह्म यदि, असत माया का आधार, कूटस्थ सत है तो इस अविनाशी तत्व से परे एक वह तत्व भी होगा जो दोनों को सम्हाले हो।
और जिसे हम सूर्य का प्रकाश कहते हैं वह मानो कई किलो भर ऊर्जा है। अन्धेरे में उल्लू देखता है, तमाम पशु देखते हैं, इसका मतलब हुआ कि प्रकाश कम है। ऐसे भी जीव होंगे जो बहुत प्रकाश देख पाते होंगे जिसके सामने हम आँख भी नहीं खोल सकते।
प्रकाश का कम होना, अधिक होना, अत्यधिक होना. यह सब बताता है कि एक तारतम्य का सम्बन्ध है जो कम और अधिक को जोड़े हुए है। और जो दोनों को तारतम्य में जोड़े हुए है, सत और असत दोनों को ही, वह कोई तीसरा परे का तत्व है। वह ब्रह्म को भी सम्भाले है, ब्रह्म के न्यूनांश माया को भी और फिर दोनों से परे अपनी महिमा में स्थित है जहाँ ब्रह्म-माया का तारतम्य नहीं है | एतावानस्य महिमा ऽ तो ज्यायोश्च पूरषः (ऋग्वेद 10/90/3) "यह सारा ब्रह्माण्ड उनकी सृष्टि महिमा है, वह स्वयं तो अपनी महिमा से बड़े हैं।"
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