जीव कर्ता कि भोक्ता?नित्य कि अनित्य? वाणी कहती है - जिन जानों शास्त्रोंमें नहीं, है शास्त्रोंमें सब कुछ ! सब श्यानों की एकमत पायी, पर अजान देखे रे जुदाई । यह हमारी (आत्म और संगी जीव चेतना की) जाग्रति की अवस्था पर निर्भर है कि हम वाणी और शास्त्रों को एक माला में पिरो सकते हैं या नहीं । निहसंदेह वाणी को शास्त्रों की हर बातों से विपरीत मान लेना हमारी भूल है। हम यह बहुत बड़ी कुसेवा करते है, जब हम पूज्य सरकार श्री या अन्य ज्ञानिजनों के शब्दों को जाहिरी रूप में जड़ता से पकड़ रख कर उनकी ढाल बना कर, उनके नामों का प्रयोग कर के अपने अहम को शराब पिलाते हुए वार्ता या बहश करते रहते हैं । और स्वयं अनुभूति की गहराई में जाने से डरते रहते हैं। सुंदरसाथ जब तक वाणी को integrated wisdom अर्थात् और सभी ज्ञान को एक तारतम्य शृंखला में रखने वाली महा सक्षम नहीं समझ पाएँगे, तब तक उसका वास्तविक रस अपने भीतर प्रगट नहीं कर पाएँगे । मेरा प्राणनाथ छटनी (परित्रानाय साधुनाम, विनाशयचदुश्कृतम) वाला नहीं, बल्कि सब को अपने प्रेम में लपेट लेने वाला है - वह साम्प्रदायिक नहीं है । वाणी क्षीर नीर का निवेरा तो करती है, लेकिन उ...