जीव कर्ता कि भोक्ता?नित्य कि अनित्य?

जीव कर्ता कि भोक्ता?नित्य कि अनित्य?

वाणी कहती है -
जिन जानों शास्त्रोंमें नहीं, है शास्त्रोंमें सब कुछ !
सब श्यानों की एकमत पायी, पर अजान देखे रे जुदाई ।

यह हमारी (आत्म और संगी जीव चेतना की) जाग्रति की अवस्था पर निर्भर है कि हम वाणी और शास्त्रों को एक माला में पिरो सकते हैं या नहीं । निहसंदेह वाणी को शास्त्रों की हर बातों से विपरीत मान लेना हमारी भूल है।

हम यह बहुत बड़ी कुसेवा करते है, जब हम पूज्य सरकार श्री या अन्य ज्ञानिजनों के शब्दों को जाहिरी रूप में जड़ता से पकड़ रख कर उनकी ढाल बना कर, उनके नामों का प्रयोग कर के अपने अहम को शराब पिलाते हुए वार्ता या बहश करते रहते हैं । और स्वयं अनुभूति की गहराई में जाने से डरते रहते हैं।

सुंदरसाथ जब तक वाणी को integrated wisdom अर्थात् और सभी ज्ञान को एक तारतम्य शृंखला में रखने वाली महा सक्षम नहीं समझ पाएँगे, तब तक उसका वास्तविक रस अपने भीतर प्रगट नहीं कर पाएँगे । मेरा प्राणनाथ छटनी (परित्रानाय साधुनाम, विनाशयचदुश्कृतम) वाला नहीं, बल्कि सब को अपने प्रेम में लपेट लेने वाला है - वह साम्प्रदायिक नहीं है ।

वाणी क्षीर नीर का निवेरा तो करती है, लेकिन उसका अर्थ यह कभी नहीं कि, वाणी ने क्षीर और नीर के बीच द्वैत का डेम खड़ा कर दिया है । क्यों कहा "जल में नहाइये कोरे रहिए "?

संसारी खेल अद्भुत मिश्रण है - खीर और नीर का, जीव और आतम का, सत और झूठ का, जाग्रत और स्वप्न का, है और नाही का । ज्ञान और प्रज्ञान भी इसी तरह मिश्रित है ।

सुंदरसाथ (आत्म और संगी जीव) के हर प्रश्न का उत्तर सिर्फ़ तारतम का भीतरी प्रकाश अथवा जागरूकता के स्तर पर निर्भर है ।

सुंदरसाथ की पूर्ण जागृत अवस्था में जीव और आतम दोनों को अपने मूल स्वरूप का बोध रहता है, लेकिन उनकी अनुभूति में, (जैसे हम जीव और आतम दोनों को अलग अलग बताते हैं, ) कोई भेद रेखा दोरी नहीं जा सकती । प्रेम, सेवा, चित्वनि, मंथन, विरह हर ऐक्टिविटी में दोनों (जीव, और आत्म) ही के परस्पर सहयोग से सम्मिलित लीला होती है । कोई काम न अकेला जीव करता है, न अकेली आत्म । जब कोई सचाई से चितवन में डुबा हो, तब चित्वनि में वह जीव और आत्म को अलग नहीं करया, ना ही ऐसा करने की कोई आवश्यकता ही रह जाती है । सब कुछ सहज होता रहता है ।

किसी भी लीला कर्म कौनसे स्तर (क्षर, अक्षर, या अक्षरातीत) का भाव लेकर सम्पादित की जाती है, इससे ही उस क्रिया को जीव की या आत्म की क्रिया की संज्ञा प्राप्त होनी चाहिए । क्या आप कोई भी ऐक्टिविटी अपने आप को ऐसा कह कर करते हो कि - "देखो भई जीव अब तू यह कर, अरे आत्मा, अब तू इसे देख?" यह पूछने वाला कौन है? जो पूछ रहा है - मैं कौन, कहाँसे आइया, कहाँमेरा भर्तार? क्या अकेला जीव या अकेली आत्म यह पूछ सकती है?

जब तक हुक्म की सर्वोपरिता का अंतस में पूर्ण स्वीकार नहीं हो जाता, कर्ताभाव बना रहता है । लेकिन हुक्म की सर्वोपरिता के अंतस में पूर्ण स्वीकार से होने वाली ऐक्टिविटी में द्रष्टाभाव क़ायम रहता है । इस द्रष्टा भाव -धणी की मैं - की स्थिति में जीव भी अपने स्वप्न से बाहर हो जाता है। जीवपना समाप्त । जीव अपने आत्म स्वरूप के (सबलिक चेतन गुण धर्म प्राप्त कर लेता है ।

इस जागनी लीला में आत्म लीला देख  रही है इसका अर्थ मुझे यह समझ आता है कि सुंदरसाथ पूर्ण समर्पित द्रष्टा भाव से प्रेम सेवा लीला कर्म कर रहे हैं । यह 'देखना ' विशिष्ट प्रकार का है, जिसमें सुंदरसाथ का सम्पूर्ण अस्तित्व शुद्ध कर्ता भी है और शुद्ध द्रष्टा भी । लीला क्या है? शुद्ध कर्म जो प्रेम केंद्रित हो । फिर वह कर्म कर्म रहता नहीं, लीला का भाग बन जाता है । और लीला आत्म भाव से ही सम्भव है ।

सारी बीतक में आने वाले पात्रोंको देखें तो उन्होंने पूर्ण अनुभूति में wholeness से सुख लिया और दिया  भी । विभाजित या fragmented हो कर ऐसे प्रश्न या सेल्फ़-doubt उन्होंने नहीं प्रगट किए ।

अपने जागनी जीवन की अनुभूतियों को जीव और आत्म के दो टुकड़ों मैं बाँटने से सुंदरसाथ जी बच कर रहें यही प्रार्थना । ब्रह्म ज्ञान विवेचन तर्क में बुद्धि द्वारा किया गया division अनुभूति में एकरूप पूर्ण हो जाता है ।

मूल मुद्दा है हमारी लेवल ओफ़ अवेर्नेस awareness का ।

अतः फोकट की चिंता छोड़ो, मिले समय सम्पत्ति और शक्ति को प्रेमानंद की अनुभूतियोंकी गुडीज़ goodies से भरना श्री कर दो । बुद्धजी हम सब के भीतर से प्रगट होने के लिए तत्पर है! वे तरस हैं हमारे द्वारा ज़ाहिर होने को, और हम उनको उल्टा ही भूतकाल मैं या किसी व्यक्ति विशेष में , तर्क बुद्धि तक सीमित रख कर देखना चाह रहे हैं !

सदा आनंदमंगल में रहिए।

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