“चरित्र देव"—एक ऐतिहासिक उपन्यास, जो स्वामी श्री प्राणनाथ जी, शक्तिपुत्र महाराजा छत्रसाल बुंदेला और अप्रतिम सुंदरी पद्मा के जीवन पर आधारित
श्री प्राणनाथ वैश्विक चेतना अभियान और श्री निजानंद आश्रम, वडोदरा गर्वपूर्वक प्रस्तुत कर रहे हैं—"चरित्र देव"—एक ऐतिहासिक उपन्यास, जो स्वामी श्री प्राणनाथ जी, शक्तिपुत्र महाराजा छत्रसाल बुंदेला और अप्रतिम सुंदरी पद्मा के जीवन पर आधारित है।
यह उपन्यास प्रेम और समर्पण की गाथा के साथ आपके समक्ष आ रहा है। इसके सभी पात्र ऐतिहासिक हैं, किंतु उनकी कहानी में कल्पना की कुछ सुंदर दस्तकारी अवश्य है। उपन्यास केवल इतिहास नहीं है—यह कल्पना की कोमल बुनावट के साथ जीवन के अनछुए पहलुओं को उजागर करता है। इतिहास घटनाओं का मात्र उल्लेख करता है, लेकिन उपन्यास उन्हें चित्रित कर जीवंत बना देता है।
इस कथा की प्रमुख नायिका पद्मा, अनुपम सौंदर्य की धनी युवती थी, जिसे पन्ना के महाराजा छत्रसाल ने मुगलों के बंधन से मुक्त कराया था। पद्मा अद्भुत रूपवती थी, किंतु युवक छत्रसाल ने उसे कामुक दृष्टि से नहीं, बल्कि मातृभाव से देखा—यह नियति का अनूठा रहस्य ही रहा। परंतु पद्मा, महाराज छत्रसाल के प्रति संपूर्ण आत्मसमर्पण कर चुकी थी। वह अपने प्रेम को सहज शब्दों में व्यक्त करने में संकोच कर रही थी—नारीसुलभ लज्जा ने उसे रोक रखा था। अंततः उसने अपने हृदय की बात केवल इस रूप में कहने का साहस जुटाया—"आपसे मुझे आप जैसा पुत्र चाहिए!"
युवराज छत्रसाल को इस याचना से प्रसन्न होना चाहिए था, किंतु उन्होंने अपने चरित्र-बल का परिचय देते हुए इसे ठुकरा दिया। उन्होंने उत्तर दिया—"मैं ही तुम्हारा पुत्र हूँ।" यह उत्तर पद्मा के लिए एक भावनात्मक कुठाराघात था, जिसकी पीड़ा श्री प्राणनाथ जी ने अपने प्रेम और ज्ञान के मरहम से हर ली।
जहाँ महाराज छत्रसाल ने बावन शादियाँ की थीं, वहाँ वे पद्मा को भी अपने रनिवास में स्थान दे सकते थे। कोई उनकी आलोचना नहीं करता, वे समर्थ थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने न उसे अपनी रानी बनाया, न दासी। उन्होंने उसके हृदय में उठे प्रेम के तूफान को उसी स्थिति में छोड़ दिया।
यह उपन्यास पद्मा की वेदना और समर्पण का मार्मिक चित्रण करता है। महाराज छत्रसाल का जीवन पद्मा से गहरे जुड़ा हुआ था, और उनके जीवन को दिशा देने में स्वामी प्राणनाथ जी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी। इस कथा में महाराज छत्रसाल और स्वामी प्राणनाथ जीकी जीवन-गाथाएँ साथ-साथ बुनती चलती हैं। ऐतिहासिक तथ्यों को यथावत रखा गया है, बस कुछ स्थानों पर समय के अंतराल में हल्का परिवर्तन किया गया है।
इस कथा का मूल उद्देश्य पद्मा की प्रेम गाथा को भावात्मक स्तर पर सृजित करना है। साथ ही, इसके माध्यम से स्वामी प्राणनाथ जी के आध्यात्मिक सिद्धांतों को प्रस्तुत करने की भूमिका भी रची गई है। ये सिद्धांतराष्ट्रीय एकता, सर्वधर्म-समन्वय, सम्प्रदायवाद उन्मूलनजैसे विषयों को सशक्त रूप में प्रतिपादित करते हैं।
उपन्यास की भाषा और पात्रों की शैली का विशेष ध्यान रखा गया है। स्वामी प्राणनाथ जी अनेक भाषाओं के विद्वान थे और अवसरानुसार संस्कृत, फारसी, हिंदी, गुजराती इत्यादि भाषाओं का प्रयोग करते थे।
यह उपन्यास कैसा बन पड़ा है—इसका निर्णय पाठकों को करना है। - अम्बिकाप्रसाद दिव्य
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