परब्रह्म की दो लीला-स्थितियाँ: प्रवृत्ति और निवृत्ति ✨
परब्रह्म की दो लीला-स्थितियाँ: प्रवृत्ति और निवृत्ति ✨
परब्रह्म रसस्वरूप हैं, इसलिए वे अकेले में रमण नहीं करते। अकेले रस की सार्थकता क्या? वे स्वभाव से परिपूर्ण प्रेमरस के स्रोत हैं। उनकी लीला की दो अवस्थाएँ हैं:
- प्रवृत्ति लीला — जो अक्षर ब्रह्म के रूप में होती है
- निवृत्ति लीला — जो अक्षरातीत परब्रह्म के रूप में प्रेमरस से परिपूर्ण होती है|
यद्यपि परब्रह्म एक ही हैं, पर लीला के भेद से वे दो रूपों में प्रकट होते हैं —एक ऐश्वर्यमय (प्रवृत्ति) और दूसरा प्रेममय (निवृत्ति)। लीला के लिए रूप दो हैं, पर स्वरूप तो एक ही है।
"इत और न दूजा कोय। स्वरूप एक है, लीला दोय।।"
(परिक्रमा ३/९८)
🔹 प्रवृत्ति लीला: सृष्टि और ऐश्वर्य का विस्तार
इस लीला में अक्षर ब्रह्म प्रकृति के सहयोग से सृष्टि करते हैं — अनेक रूपों, स्तरों और मापों में विराट की रचना करते हैं, जिसमें:
- आनंद का अनुभव तुलनात्मक होता है - कभी अधिक, कभी कम तारतम्य में
- अक्षर ब्रह्म के ऊपर के तीन अमृत पादों (सत्, कैवल, सबलिक) में अक्षरातीत के आनंद की झलक तारतम्य रूप में देखने को मिलती है
- चौथे खंड (अव्याकृत) में, जहाँ मायिक सृष्टि का उदय होता है, वहाँ ज्ञान और आनंद ढँक जाते हैं और दुःखमय संसार प्रकट होता है।
इस स्थिति में लीला द्रवीभूत होती है — घनीभूत प्रेमरस नहीं होता, केवल उसका प्रतिबिंब रहता है।
🔹 निवृत्ति लीला: प्रेमरस की परिपूर्ण चरमावस्था
यह अक्षरातीत परब्रह्म की मायरहित, पूर्ण प्रेममय लीला है। यहाँ वे कोई सृष्टि नहीं करते, केवल परात्माओं के साथ प्रेमरस में लीन रहते हैं।
- यहाँ न कोई भेद है, न कोई कर्तृत्व
- परब्रह्म स्वयं प्रेमस्वरूप हैं, परात्माएँ उनके साथ किशोरलीला में मग्न रहती हैं
- अक्षर और परात्माएँ प्रेम की झलक मात्र हैं
- परब्रह्म में वह प्रेम घनीभूत रूप में व्याप्त है।
- परात्माओं में वह प्रेम द्रवीभूत होकर कम अधिक मात्रा में बहता है।
🎭 लीला का प्रतीक: बाल और किशोर रूप
संसार को देखने के बाद मनुष्य को परमात्मा की दो लीलाओं का बोध होता है:
- बाललीला — सर्जनात्मक, अक्षर ब्रह्म की लीला
- किशोरलीला — ज्ञान और प्रेममय, अक्षरातीत परब्रह्म की लीला
वृद्धावस्था तो क्षय और लय का चिह्न है — उसमें कोई लीला नहीं होती। जो सदा रस, शक्ति, शोभा और आनंद से परिपूर्ण होते हैं, इसलिए परमात्मा को 'युवा' कहा जाता है।
🧠 ज्ञान और प्रेम — विरोधी नहीं, बल्कि दो प्रकार के अभिव्यक्ति रूप हैं।
जब परब्रह्म ध्यानमग्न होते हैं, तब वे ज्ञानस्वरूप होते हैं — सम्पूर्ण लीला की योजना को जानते हैं।
जब वे परात्माओं के साथ प्रेमानंद में लीन होते हैं, तब वे रसस्वरूप हो जाते हैं।
ज्ञान और आनंद एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं:
- जब आनंद प्रकट होता है, तब ज्ञान अंतर्मुख होता है
- और जब ज्ञान प्रकट होता है, तब आनंद पृष्ठभूमि में चला जाता है।
इस प्रकार अद्वैत परब्रह्म लीला में दोनों रूपों में प्रकट होते हैं।
🌸 ब्रह्मानंद की अनुभूति कहाँ होती है?
- यह संसार अक्षर ब्रह्म का स्वप्नमात्र है — यहाँ केवल नाम और रूप हैं, घनीभूत रस नहीं
- जैसे छाया से फल का स्वाद नहीं मिलता, वैसे ही यहाँ स्थायी प्रेमरस नहीं मिलता
- वह परिपूर्ण प्रेमरस की अनुभूति केवल परमधाम में ही होती है — जहाँ रसराज परब्रह्म अपनी परिपूर्ण प्रेमलीला में लीन रहते हैं
🔱 निष्कर्ष:
- परब्रह्म की दो लीलाएँ हैं - एक में वे जगत की रचना करते हैं (प्रवृत्ति), दूसरी में वे पूर्ण प्रेम में लीन रहते हैं (निवृत्ति)
- परब्रह्म अद्वितीय हैं, फिर भी परात्माओं और अक्षर के साथ लीला करते हुए विविध रूपों में प्रकट होते हैं
- उनका परिपूर्ण रस केवल परात्माएँ ही जान सकती हैं —जैसे मधु का स्वाद केवल मधुमक्खी जानती है।
सप्रेम प्रणाम 🙏 सदैव परम आनंद और मंगल में स्थित रहिए 💫
Comments
Post a Comment